जिस कानून ने 123 साल पहले तिलक को भेजा था जेल, वही अब प्रदेश में कोरोना से लड़ने का हथियार

किसी भी व्यक्ति की कभी भी जांच करने का अधिकार देता है ये कानून

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आनंद गोपाल श्रीवास्तव/नरसिंहपुर।

कोरोना के बढ़ते मामलों और फर्जी खबरों पर प्रभावी नियंत्रण के लिए मप्र समेत

विभिन्न् राज्य सरकारों ने आखिरकार अंग्रेजों के उस इपिडेमिक कानून को अपना प्रमुख हथियार बनाया है, जिसने 123 साल पहले स्वतंत्रता संग्राम सेनानी बाल गंगाधर तिलक को 18 महीने के लिए जेल भेजा था। तिलक के अखबार केसरी को भावनाएं भड़काने का जिम्मेदार मानकर प्रतिबंधित कर दिया गया था। यह पढ़कर शायद आप चौंक जाएं लेकिन यही हकीकत है।

दरअसल देश के विभिन्न् राज्यों में लागू इपिडेमिक डिसीज एक्ट को अंग्रेजों ने 1896 में फैली बुबोनिक प्लेग महामारी से बचाने बॉम्बे (मुंबई) के मांडवी इलाके में 4 फरवरी 1897 में लागू किया था। हालांकि तब इसका वास्तविक लक्ष्य महामारी से अधिक लोगों के जमघट को रोककर स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को कैद करना था। ये कानून सरकार को किसी भी व्यक्ति की किसी भी समय जांच करने, संदिग्ध को अन्य लोगों से अलग करने समेत प्रकाशन को पूरी तरह नियंत्रित करने का अधिकार देता है। यही वजह है कि इस कानून को अब कोरोना से जारी जंग में देश के विभिन्न् राज्यों ने हथियार के रूप में लागू किया है। इसका मकसद लॉक डाउन तोड़कर जमघट लगाने वालों को सख्ती से रोकना, बीमारी छिपा रहे व्यक्तियों की पहचान करना और सोशल मीडिया समेत विभिन्न् माध्यमों पर प्रसारित कोरोना वायरस की फर्जी खबरों, अफवाहों पर कठोर नियंत्रण करना है।

2015 व 2018 में भी लागू हो चुका है कानून
इपिडेमिक डिसीज एक्ट 1897 दो साल पहले बडोडरा गुजरात में हैजा महामारी से लड़ने के लिए लागू किया गया था। वहीं 2015 में चंडीगढ़ में मलेरिया की रोकथाम के लिए इसका इस्तेमाल हुआ था। दोनों ही जगहों पर इस कानून को लागू करने के परिणाम सकारात्मक रहे थे।

बेहद कठोर हैं कानूनी प्रावधान

  • इपिडेमिक डिसीज एक्ट 1897 की धारा 2 राज्य सरकार को इस बात की अनुमति देता है कि वह महामारी को रोकने रेल समेत सड़क, हवाई यात्रा करने वाले किसी भी व्यक्ति का कभी भी निरीक्षण कर सकती है। साथ ही यदि सरकार या उनके अधीनस्थ कर्मचारियों को कोई व्यक्ति, समुदाय या क्षेत्र विशेष संदिग्ध लगता है तो उनका संपर्क अन्य लोगों से काटा जा सकता है।
  • सरकार के आदेश की अवहेलना करने वालों को धारा 188 के तहत तीन साल तक की सजा और 10 हजार रुपए का जुर्माना लग सकता है। खास बात ये है कि इस अस्थाई कानून को लागू करने या हटाने के लिए केंद्र सरकार भी राज्य सरकार को आदेश नहीं दे सकती हैं।
  • महामारी से संबंधित किसी भी तरह की भ्रामक पोस्ट या खबर सोशल मीडिया और अन्य माध्यमों पर प्रसारित करना दंडनीय अपराध होगा। प्रदेश में कोविड 19 के संबंध में जिला दंडाधिकारी द्वारा प्रसारित सूचनाएं ही प्रकाशित की जाएंगी।
  • इपिडेमिक डिसीज एक्ट 1897 लोकहित के लिए नियुक्त सरकारी जांचकर्ता को भी सुरक्षा प्रदान करती है। कानून के अंतर्गत जांचकर्ता द्वारा की गई कार्रवाई को किसी भी न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती है।
मप्र 9वां राज्य जहां ये कानून लागू
कोविड 19 के बढ़ते प्रकोप और इस संबंध में दुष्प्रचार को रोकने के लिए मध्यप्रदेश देश का नौंवा राज्य है जहां पर इपिडेमिक डिसीजेस एक्ट लागू किया गया है। गुरुवार को लोक स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण के प्रदेश सचिव राजीव चंद्र दुबे ने इस एक्ट के लागू होने की जानकारी दी। इसके अंतर्गत कोविड 19 के संबंध में अधिकृत सरकारी विभागों, जिला दंडाधिकारी की अनुमति के बगैर कोई भी खबर सोशल मीडिया, इलेक्ट्रॉनिक न्यूज चैनल, वेब पोर्टल, अखबारों आदि में प्रकाशित नहीं की जा सकेंगी। ऐसा करना व्यक्ति या संस्था के लिए दंडनीय अपराध होगा।

इतिहास के पन्नों से

  •  इपिडेमिक डिसीज एक्ट 4 फरवरी 1897 को अंग्रेजों ने मांडवी बॉम्बे में लागू बुबोनिक प्लेग को रोकने लागू किया था।
  • इस कानून की वजह से बॉम्बे (मुंबई) के क्रांतिकारियों को जेल जाना पड़ा था। जेल जाने वालों में बाल गंगाधर तिलक प्रमुख थे।
  • बाल गंगाधर तिलक के अखबार केसरी को महामारी के खिलाफ अफवाह फैलाने का आरोप मढ़ा गया था।
  • यह कानून आजाद भारत में हैजा, स्वाइन फ्लू, मलेरिया जैसी महामारी को रोकने में कारगर साबित हुआ है।
  •  यह कानून आपात परिस्थितियों में राज्य सरकारों द्वारा ही लागू किया जा सकता है।
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